प्रश्न : पढ़ाई का मूल उद्देश्य क्या होना चाहिए ?
पढ़ाई का मूल होना चाहिए “स्वाध्याय” | स्वाध्याय के दो अर्थ हैं पहले “स्वयं से अध्ययन” दूसरा “स्वयं का अध्ययन” यानी सेल्फ स्टडी और स्टडी ऑफ़ सेल्फ | यही दोनों मुख्य काम है पढ़ाई के, शिक्षा के, सबसे पहले हर बच्चे को सेल्फ स्टडी के लिए प्रेरित किया जाए उसे तैयार किया जाए जिससे वह स्टडी ऑफ सेल्फ तक पहुंचे और यदि स्टडी ऑफ़ सेल्फ तक वह पहुंच गया अर्थात आत्मज्ञान के मार्ग पर अग्रसर हो गया तो वह स्वतः ही जन कल्याण के मार्ग पर अग्रणी होगा और सही मायनो में हमारी गुरुकुल परंपरा हमारे परंपरागत पौराणिक गुरुकुल शिक्षा पद्धति में सिखाया – कराया जाता था | जिसका स्वरूप ही अंग्रेजों द्वारा इस अंग्रेजी शिक्षा पद्धति में बदल दिया गया और बच्चों को डर और लालच के जाल में फंसा कर उन्हें उनके मूल उद्देश्य से भटका दिया गया |
हर बच्चे को “स्वाध्यायी” बनाना यही हर गुरु, शिक्षक, पैरंट का कर्तव्य है | अभी के स्कूली सिस्टम कि यदि बात करें तो इसमें सबसे पहले बच्चे को सेल्फ स्टडी के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए बच्चों का जितना भी सिलेबस है बच्चे जितनी भी पढ़ाई करते हैं जितने भी किताबें पढ़ते हैं उसमें उन्हें सेल्फ स्टडी के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए ज्यादा से ज्यादा समय सेल्फ स्टडी के देना चाहिए, शिक्षकों, गुरुजनों द्वारा सेल्फ स्टडी के मेथड बताने चाहिए जिससे वह सेल्फ स्टडी करें और जो बच्चा जितना सेल्फ स्टडी करेगा स्वाध्याय करेगा वह उतना ही भीतर के रास्ते यानी स्टडी ऑफ सेल्फ के मार्ग पर भी अग्रणी होगा |
आप देखिए जितनी भी स्कूल की पढ़ाई चल रही है वहां पर सेल्फ स्टडी जैसा तो कुछ है ही नहीं आप यदि एक क्लास रूम का उदाहरण ले तो आप वहां पाएंगे 40 बच्चे और एक टीचर होते हैं किसी भी कक्षा में जहां पर टीचर किसी भी सब्जेक्ट के चैप्टर के टॉपिक को समझाने का – पढ़ाने का काम करते हैं और बच्चे उस चैप्टर टॉपिक के नोट्स, प्रश्न- उत्तर,एक्सरसाइज को लिखने का काम करते हैं | अब सवाल यहां पर यह होता है कि शिक्षक का टीचर का गुरु का सही मायने में काम क्या है – बच्चों को समझाना या बच्चे को समझने लायक बनाना ? सही मायने में एक गुरु वही है एक शिक्षक उसे ही कहा जा सकता है जो बच्चों को समझने लायक बना दे | बच्चों की समझ के स्तर को इतना विकसित करे कि बच्चे खुद से विषयों को समझना शुरू करें | पहले सिलेबस को समझना शुरू करें अपने चैप्टर, टॉपिक को समझना शुरू करें और उन्हें समझते समझते 12 – 15 – 18 साल की पढ़ाई में उन्हें ऐसी आदत लग जाए कि वह जीवन के हर विषय का अध्ययन स्वयं से करें और उसे समझने के लिए करें और बाहर के विज्ञान को समझते – समझते वे आत्मज्ञान को यानी अपनी भीतर की दुनिया को अपने भीतर के ज्ञान को समझना शुरू कर दें |
अब बच्चा तो तब समझना शुरू करेगा जब उसे यह पता हो कि समझते कैसे हैं ? समझने और याद करना यह दो बिल्कुल विपरीत बातें हैं यदि आपको कोई चीज समझ में आ गई तो उसे याद करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी और यदि आपको कुछ याद करने की आवश्यकता पड़ रही है इसका मतलब आपको वह चीज समझ में नहीं आई |
हमारी जितनी भी स्कूली शिक्षा है उसमें जब टीचर किसी चैप्टर, टॉपिक को जब एक्सप्लेन करते हैं यानी समझाते हैं और बच्चे उस समय उनकी बातों को सुन रहे होते हैं – समझने की कोशिश कर रहे होते हैं तो क्या उन्हें वह सही मायनों में समझ में आई होती है ? यदि उन्हें वह कॉन्सेप्ट, वह चैप्टर – टॉपिक समझ में आ गए होते तो उन्हें याद करने की आवश्यकता क्यों पड़ती है ? और यदि उन्हें समझ में नहीं आए तो वह उन प्रश्न – उत्तरों को, नोट्स को याद करके क्या सार्थकता हासिल कर लेंगे ?
आप देखे जितनी भी स्कूली पढ़ाई है उसमें एक कॉमन चीज आप पाएंगे कि सभी बच्चे अपने नोट्स, चैप्टर, क्वेश्चन – आंसर्स को याद करते हुए पाए जाते हैं | याद करने की जरूरत तभी उन्हें पड़ती है जब उन्हें वह चीज समझ में नहीं आई अर्थात हमारे जितनी स्कूली पढ़ाई है उसमें ज्यादातर हिस्सा समझने के लिए नहीं बल्कि याद करने के लिए दिया जाता है | ज्यादातर समय बच्चे याद करने को देते हैं ना कि समझने को और आप हर टीचर से यह जरूर सुनेंगे की घर से याद करके आना, अच्छे से याद किया करो और तो और बच्चों को अलग-अलग मेथड्स, अलग-अलग टेक्नीक्स देते हैं कि अच्छे से कैसे याद हो सकता है, ज्यादा लंबे समय तक कैसे याद रखा जा सकता है, जबकि उन्हें यह बताना चाहिए था कि अच्छे से कैसे समझ में आ सकता है ? गहराई से कैसे समझा जा सकता है ? ताकि उन्हें याद करने की आवश्यकता ना पड़े !
“याद करने के तरीके हम सबको पता है लेकिन समझने के मायने और समझने के तरीके हमें नहीं पता इस वजह से हमारी पढ़ाई यह स्कूली सिस्टम सार्थक परिणाम नहीं दे पाता”
सोच कर देखिए यदि कोई किसान है और उसने कोई फसल लगाई और वह फसल खराब हो गई उसने फिर कोई फसल लगाई वह फिर खराब हो गई फिर फसल लगाई फिर खराब हो गई ! अगर किसी किसान के साथ पांच – सात बार ऐसा हो जाए तो क्या आठवीं बार उसका फसल लगाने का मन करेगा ? जाहिर सी बात है नहीं करेगा ! आपके साथ ऐसा हो की यदि आप कोई काम कर रहे हों, बार-बार उसे करने का प्रयास कर रहे हों और लगातार उसमें विफल हो रहे हों तो एक समय के बाद आपका भी मन नहीं करेगा उस काम को दोबारा करने का, ठीक ऐसा ही होता है हर बच्चे के साथ जब वह पढ़ाई कर रहा होता है जब भी वह पढ़ाई की फसल लगाता है यानी जब भी वह अपने चैप्टर, नोट्स- क्वेश्चन आंसर्स को याद करता है उसके दो-चार दिन पांच दिन के बाद वह उन सब नोट्स, क्वेश्चन – आंसर, एक्सरसाइज को भूल जाता है | वह फिर उसे याद करने की कोशिश करता है फिर भूल जाता है फिर याद करने की कोशिश करता है फिर भूल जाता है | वह बार-बार पढ़ाई की फसल लगता है और वह फसल खराब हो जाती है ऐसा बार-बार फसल लगाने और खराब होते देख वह फसल लगाने के खेल से यानी पढ़ाई के खेल से ही दूर भगाने का प्रयास करता है | इसीलिए बच्चों का पढ़ाई में मन नहीं लगता क्योंकि वह अपनी पढ़ाई की फसल बार-बार लगाते तो है उसमें मेहनत करते तो हैं लेकिन उसका परिणाम उन्हें नहीं दिखाई पड़ता वह फसल उन्हें लंबे समय तक नहीं दिखाई पड़ती इसीलिए वे थक हार कर उसे पढ़ाई से मुंह मोड़ लेते हैं और उनका पढ़ाई से मन हटने लगता है |
जिस बच्चे को जो चैप्टर, टॉपिक, सब्जेक्ट समझ आना शुरू हो जाता है वह उसमें रुचि लेता है और जो सब्जेक्ट उसे समझ में नहीं आ रहे होते जिसमें भी उसे याद करना पड़ता है उसमें वह रुचि नहीं लेता है और उसे दूर भगाने का प्रयास करता है | क्योंकि याद करना एक बोझ समान है हमारा दिमाग किसी भी चीज को याद करने के लिए नहीं है | दिमाग का काम चीजों को याद करना नहीं है तथ्यों को याद करना नहीं है बल्कि सत्य को ज्ञात करना अर्थात समझना है | जब तक दिमाग को याद करने का कार्य दिया जाएगा तब तक वह अरुचि प्रकट करेगा | यह ठीक है ऐसा है जैसे हम बकरी को घास की जगह पर ईंट – पत्थर खिलाने लग जाए तो जाहिर सी बात है कोई भी बकरी नहीं खाएगी इसी प्रकार यदि मस्तिष्क को दिमाग को समझने के बजाय याद करने के चक्कर में डाल दिया जाएगा तो वह उसमें अरुचि प्रकट करेगी क्योंकि वह उसका मूल काम नहीं है वह उसका सार्थक कार्य नहीं |
पूरी पढ़ाई का, पूरे स्कूली सिस्टम का, सभी टीचर्स का, सभी स्कूलों का, एकमात्र काम है बच्चे की समझ के स्तर को विकसित करना, बच्चों को सोचने – समझने लायक बनाना, बच्चों को सिलेबस पूरा कराना नहीं बल्कि बच्चों को सिलेबस पूरा करने लायक बनाना, बच्चों को समझाना नहीं बल्कि बच्चों को समझने लायक बना देना कि वह खुद से चीजों को समझने लगे वह खुद से स्वाध्याय करने लगे ।